पर्यावरण प्रदूषण

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महेन्द्र प्रताप सिंह

Abstract

काल प्रकृति और मानव के बीच भावनात्मक सम्बन्ध था। मानव अत्यन्त कृतज्ञ भाव से प्रकृति के उपहारों को ग्रहण करता था। प्रकृति के किसी भी अवयव को क्षति पहुँचाना पाप समझा जाता था। बढ़ती जनसंख्या एवं भौतिक विकास के फलस्वरूप प्रकृति का असीमित दोहन प्रारम्भ हुआ। भूमि से हमने अपार खनिज सम्पदा, डीजल, पेट्रोल आदि निकाल कर धरती की कोख को उजाड़ दिया। वृक्षों को काट-काट कर मानव समाज ने धरती को नग्न कर दिया। वन्य जीवों के प्राकृतवास वनों के कटने के कारण वन्यजीव बेघर होते गए। असीमित औद्योगीकरण के कारण लगातार जहर उगलती चिमनियों ने वायुमण्डल को विषाक्त एवं दमघोंटू बना दिया। हमारी पावन नदियाँ अब गन्दे नाले का रूप ले चुकी है। नदियों का जल विषाक्त होने के कारण उनमे रहने वाली मछलियाँ एवं अन्य जलीय जीव तड़प-तड़प कर मर रहे है। बढ़ते ध्वनि प्रदूषण से कानों के परदों पर लगातार घातक प्रभाव पड़ रहा है। लगातार घातक रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग भूमि को उसरीला बनाता जा रहा है। धरती पर अम्लीय वर्षा का प्रकोप धीरे-धीरे  बढ़ता जा रहा है तथा लगातार तापक्रम बढ़ने से पहाड़ों की बर्फ पिघल रही है जिससे धरती का अस्तित्व स`कटग्रस्त होता जा रहा है।

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1.
सिंहम. पर्यावरण प्रदूषण. ANSDN [Internet]. 24Jul.2014 [cited 4Aug.2025];2(01):192-03. Available from: https://anushandhan.in/index.php/ANSDHN/article/view/1013
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